होलिका दहन व्रत कथा | Holika Dahan Katha
🙏 होलिका दहन की पौराणिक कथा 🙏 बहुत समय पहले की बात है, दैत्यों का राजा हिरण्यकश्यप अत्यंत शक्तिशाली और अहंकारी था। उसने कठोर तपस्या ...
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विश्राम देवता के समय किसी गाँव में एक भाटका और एक जाटका रहते थे; दोनों परम् मित्र थे। एक बार जाटका अपनी बहन के घर जाने को तैयार हुआ और भाटका अपनी ससुराल जाने को। दोनों साथ चल पड़े और रास्ते में रुककर एक तालाब की पाल पर बैठ गए।
जाटका ने भाटका से कहा, "चल, नगर बसेरा कर लें।" पर भाटका बोला, "तू ही नगर बसेरा कर ले, मैं तो अपनी ससुराल जा रहा हूँ; वहाँ खूब खातिर होगी मेरी, तू कर ले नगर बसेरा।" जाटका वहीं तालाब की पाल पर बैठ कर पानी की घांटी और चावल की पोटली लेकर नगर बसेरा करने लगा।
नगर बसेरा करते हुए जाटका कहने लगा—
"नगर बसेरा जो करे, सो मन के धोवे पाप,
ताता मांड़ा तापसी देगी मेरी माय;
माँ देगी मावसी, देगी द्वारका का वास,
मीठा-मीठा गास बैकुंडा का वास, पाँच कुल्ठी छटी रास.
मेरा जिबड़ो श्रीकृष्ण के पास, डालूँ पानी हो जाए घी, झट से निकल जाए मेरा जीव।"
यह सब कराकर वह जाटका बहन के पास चल पड़ा। जाटका की बहन ने भाई का खूब मान-सम्मान किया, बहुत बातें कीं और भाई की पसंद का भोजन खिलाया।
इधर भाटका अपनी ससुराल पहुँचा तो वहाँ आग लगी हुई थी। आग बुझाने वह लग गया और हाथ-मुँह काले हो गए; खुद भी थोड़ी झुलस गया। न रोटी मिली, न पानी — किसी ने पूछ भी नहीं। भाटका भूखा-प्यासा वहाँ से निकल आया।
शाम को दोनों फिर घर की ओर चल दिए और रास्ते में मिल गए। एक-दूसरे का हाल पूछा। भाटका ने कहा, "मेरी ससुराल में आग लग गई थी। आग बुझाते-बुझाते मैं काला हो गया; आज न रोटी मिली, न पानी।" जाटका बोला, "मेरी तो खूब खातिर हुई। मैंने कहा था न कि नगर बसेरा कर ले।" भाटका ने कहा, "तेरी मासी है, पता नहीं रोटी दे या ना दे; तेरी माँ है, दही-छाछ, चूरमा का पेड़ा मिलेगा — मेरी माँ नहीं है, इसलिए मैं नगर बसेरा नहीं कर पाया।"
जाटका ने फिर कहा कि उसने नगर बसेरा कर लिया है और उसका फायदा मिला। भाटका ने कहा कि यदि नगर बसेरा में इतनी शक्ति है तो चल, अब हम दोनों करके देखें। दोनों बैठकर नगर बसेरा करने लगे और वही मंत्र-माला जाटका ने दोहराई:
"नगर बसेरा जो करे, सो मन के धोवे पाप,
ताता मांड़ा तापसी देगी मेरी माय;
माँ देगी मावसी, देगी द्वारका का वास,
मीठा-मीठा गास बेकुंडा का वास, पाँच कुल्ठी छटी रास.
मेरा जिबड़ो श्रीकृष्ण के पास, डालूँ पानी हो जाए घी, झट से निकल जाए मेरा जीव।"
जैसे ही दोनों ने नगर बसेरा किया और भाटका आगे बढ़ा, उसकी खोई हुई भैंस मिल गई। भैंस लेकर वह घर पहुँचा तो माँ ने कहा कि वह दिन भर भूखा-प्यासा भटक रहा था; माँ ने उसे खूब खिलाया-पिलाया। कुछ ही दिनों में भाटका के ससुराल से संदेश आया कि वहाँ भी बहुत आवभगत हुई और वह अपनी पत्नी को लेकर घर लौट आया। भाटका प्रसन्न हुआ।
भाटका ने पूरे नगर में यह प्रसार करवाया कि कार्तिक में सब लोग अपने पीहर या सासरे जाकर नगर बसेरा करें। जैसे भाटका को नगर बसेरा करने का फल मिला, वैसा ही फल कथा सुनने वालों को भी प्राप्त हो — यही कथा का संदेश रहा।